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बिख़रते बसेरे

बिख़रते बसेरे

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Author :  सनी कुमार 

अक्सर होता तो यह है कि प्रेम कह देने से पूर्ण हो जाता है, लेकिन सुप्रिया की कहानी कहे बिना भी पूरी हो जाती है। वह हर सुबह अपने मन का सबसे शांत कोना राघव के लिए बचाकर रखती, जैसे कोई पूजा, बिना देवता के भी, पूरी हो जाती हो। वह हर शाम खिड़की से उसे ताकती रहती। उसकी चिट्ठियाँ कभी राघव तक नहीं पहुँचीं; बस तह करके डायरी में ही रख दी गईं, जैसे कोई शब्द किसी साँस की तरह भीतर ही रह जाए। राघव जानता नहीं था कि उसकी हर हल्की मुस्कान सुप्रिया के भीतर एक सुनहरा तूफ़ान छोड़ जाती थी। वह उसकी दुनिया था, और सुप्रिया... उसकी दुनिया में कहीं नहीं थी। ‘बिख़रते बसेरे’ की सबसे ख़ामोश किरच, शल्य, तिलिस्म, शलाका, रंध्र और आभास यही है कि किसी को चाहने भर से वह तुम्हारा नहीं हो जाता। राघव शायद किसी और रास्ते का मुसाफ़िर था, और सुप्रिया उस मोड़ पर रुकी रही जहाँ से वह मुड़ गया था। कुछ प्रेम मिलने के लिए नहीं होते; बस लिखे जाते हैं, खिड़की के काँच पर उँगलियों से, धड़कनों की राख पर — चुपचाप।

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